आदर्श
कुछ महीनों पहले हमारे एक वयोवृद्ध नागरिक ने, जो नालंदा में खेती करते हैं, मुझसे पूछा -
आप करना क्या चाहती हैं?” मैंने जवाब दिया - “बिहार को बदलना चाहती हूँ।”
वो बहुत सौम्य तरीक़े से मुस्कुराए और कहा - “राजनीति का स्तर इतना गिर गया है,
अच्छे लोगों के लिए बहुत मुश्किल है, कैसे करिएगा?”
मैंने कहा - “राजनीति में सिद्धांतों को ज़िंदा करके, मुश्किल ही सही।”
यह सुनकर वे इतने खुश हुए कि उन्होंने मुझे बहुत देर तक उन महान नेताओं की बातें सुनाईं जो सैद्धांतिक और
वैचारिक रूप से समर्पित हुआ करते थे। मैं उनकी आवाज़ में बदलाव और उम्मीद का वही जज़्बा महसूस कर सकती
थी जो मेरे अंदर घर कर चुका है।
जो चीज़ मुझे समकालीन राजनीति में सबसे ज़्यादा नापसंद है वह है नैतिक पतन, बेईमानी और राजनीतिक दलों में आदर्शों का अभाव।
प्लुरल्स का जन्म ही मूल्य आधारित है। चलिए मैं आपके साथ प्लुरल्स के पाँच आदर्श साझा करती हूँ, उनके पीछे के कारण भी और
उनसे जो प्राप्त होना है वह भी। इन आदर्शों की बुनियाद मज़बूत नैतिकता और कर्तव्य के प्रति अटूट समर्पण पर टिकी है और ये
सभी हमारे लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।
सबका शासन: आप इसे हमारे सभी संवाद में देखते हैं। बिहार में पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण यह है कि राजनीतिक
मशीनरी सिर्फ़ कुछ चुनिंदा लोगों के लिए काम करती है - तथाकथित वीआईपी लोगों के लिए। राजनेताओं और उनकी ‘जी हूज़ूरी’
करने वालों के बीच एक मज़बूत गठजोड़ है। समूची राजनीतिक मशीनरी सिर्फ़ उनके लिए ही काम करती है और हमारा टैक्स का
धन इन चुनिंदा लोगों के लिए दुरुपयोग होता है। सारे मौक़े ये पहुँच वाले भ्रष्ट लोग हथिया जाते हैं और इस ज़हरीले माहौल में सच्चाई
की पराजय होती रहती है। बिहार तभी आगे बढ़ेगा जब शासन में सब शामिल हों, और सत्ता व संसाधन को सही लोगों तक पहुँचाया जाए।
अंतिम को पहला स्थान: सत्ता लोगों से मिलती है, उनके वोट से। लेकिन बिहार में सत्ता की धारणा मूर्खतापूर्ण
तरीक़े से तोड़-मरोड़ दी गई है। सही तरीक़े से शासित बिहार में होना यह चाहिए कि सत्ता जो ज़मीन से आती है,
उसे ज़मीन पर ही रहना चाहिए। वैसे लोग जो दुर्भाग्यवश सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में नीचे रह गए हैं, विकास में उन्हें
सर्वाधिक महत्व मिलना ही चाहिए। सरकार को एक ऐसे सहयोगी के रूप में काम करना चाहिए जो लोगों की जिंदगियों
को प्रेरित करे, उन्हें बनाए, आगे बढ़ाए और उनको पूरी तरह बदले। अगर ज़मीन के लोगों को सत्ता का हस्तांतरण
बेहतर पब्लिक सर्विस और सक्षम नीतियों के माध्यम से नहीं होता है तो निश्चय ही बिहार देश में विकास के सभी
मानदंडों पर सबसे अंतिम पर बना रहेगा।
स्व-शासन: सरकार ने बिहार में विकेंद्रीकरण के माध्यम से मिलने वाले स्व-शासन का मज़ाक़ बना कर रख दिया है।
यहाँ विकेंद्रीकरण की उपलब्धि असल में यह रही है कि इसने सत्ता के दलाल (पावर ब्रोकर) बनाए हैं। निचले स्तर पर शासन
की ईकाईयाँ राज्य सरकार के हाथों की कठपुतलियाँ मात्र बनी हुई हैं। इस रिश्ते को बदलने की ज़रूरत है और ज़रूरी है कि
सत्ता का प्रवाह सरकारी विभागों से निकलकर स्थानीय शासन में सही अर्थों में जाए, न कि सिर्फ़ फ़ाइलों में। स्थानीय शासन को
प्रशिक्षण और पर्यवेक्षण की की ज़रूरत है। सभी विकसित देशों में बेहतर और क्रियाशील विकेंद्रीकृत संस्थाएँ हैं। इसलिए सच्चा
विकेंद्रीकरण बिहार के विकास में अनिवार्य है और इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता।
‘माई-बाप’ संस्कृति का ख़ात्मा: सरकार लोगों की ‘माई-बाप’ नहीं है और इसलिए लोगों के लिए कठोर तुग़लकी
नियम बनाने का उसको कोई अधिकार नहीं है। बिहार में सरकार के कामकाज का रवैया बेहद तानाशाही वाला रहा है।
इसी माई-बाप मानसिकता से ‘साहब’ वाली संस्कृति का भी जन्म हुआ है जिसे तुरंत ख़त्म करने की ज़रूरत है। पॉलिसी
निर्माण का एकमात्र लक्ष्य सहयोग और सुरक्षा होता है। लोगों को बेहतर सेवाएँ देना और असामाजिक तत्वों से उनकी सुरक्षा
करना। लेकिन इन दो भूमिकाओं को राजनीतिक मशीन ने पूरी तरह नज़रंदाज़ किया है। लोग शासन के केंद्र में हैं ही नहीं।
जिन्हें संरक्षक होना था वे ही बिहार में मानव अधिकारों और क़ानून के सबसे बड़े उल्लंघक हैं।
विविध सच्चाईयों का सम्मान: हम सभी की अलग-अलग वास्तविकताएँ हैं और इसलिए अलग-अलग समस्याएँ भी। इन वास्तविकताओं को प्रभावी पॉलिसी निर्माण से एकजुट किया जाना चाहिए। बिहार असीम सम्भावनाओं वाला राज्य है लेकिन ‘एक ही साइज़ में सबको फ़िट’ करने की नीति यहाँ नहीं चल सकती क्योंकि बिहार विविधताओं से भरा है। संसाधन, ज़रूरत और समस्याएँ, सभी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में अलग हैं और उन सबको एकजुट करने की ज़रूरत है ताकि कोई पीछे न छूट जाए। एक सफल राज्य और ‘सबके’ लिए बेहतर गुणवत्ता वाली ज़िंदगी हेतु विकास को ज़िम्मेदारी से और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वितरित किया जाना चाहिए। बिहार का विकास एक दूर का सपना ही होगा अगर हम साथ विकसित न हो पाएँ।
“संस्था बनाएँ न कि सत्ता के दलाल”
समाधान : ‘बैंड-एड’ समाधानों की जगह ‘समस्याओं के कारण का समाधान’
साधन : ग्राहकवाद (क्लाइयंटेलिज़्म), भ्रष्टाचार व वीआईपी संस्कृति का ख़ात्मा और अपराध व विभेदीकरण से समझौता नहीं
सिद्धांत : काँट का यह दर्शन कि “इस तरीक़े से कार्य हो कि लोग हमेशा अपने आप में लक्ष्य हों न कि महज़ एक साधन”