आपने
देखा होगा मैं पॉलिसी-निर्माण शब्द का खूब इस्तेमाल करती हूँ। पहला तो इसलिए
क्योंकि पॉलिसी-निर्माण में यह क्षमता है कि वह हमारे जीवन को सही अर्थों में बदल
सकती है या बर्बाद कर सकती है। दूसरा और जो ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि मैं चाहती
हूँ कि “हम” इसके बारे में बात करें, इसे
प्रश्न करें, इसकी आलोचना करें और सबसे जरूरी है कि इसकी “माँग” करें। जिस पॉलिटिक्स की मैं बात करती हूँ उसका
मतलब है पॉलिसी-निर्माण, और लोकतंत्र इसलिए क़ीमती है कि यह
मतदाताओं को यह अवसर देता है कि वो अच्छी पॉलिसी को चुन सकें और ख़राब को ख़ारिज
कर सकें। दुर्भाग्यवश, राजनेता लोग न तो चुनावों में पॉलिसी
की बात करते हैं, न तो इसका मतलब उन्हें पता है और न ही वे
इसे बनाना जानते हैं। बहरहाल, क्या “पब्लिक
पॉलिसी” का मतलब स्वतः ही स्पष्ट नहीं है - पब्लिक के लिए
पॉलिसी? इसका जवाब हाँ भी है और ना भी। यह इतना सरल नहीं है
जितना इसके शाब्दिक अर्थ से लगता है।
जब
मैं बच्ची थी तो मेरी दादी मुझे राजाओं की कहानियाँ सुनाया करती थीं जिनमें वे जब
भ्रमण पर ज़ाया करते थे तो अपने मंत्रियों को मनमाने आदेश दिया करते थे - “राजा को
फूल इतना पसंद आया कि उसने आदेश दिया कि हम चाहते हैं कि यह फूल मेरे पूरे
साम्राज्य में लगा दिया जाए”। इसी तरह से आज भी हमारे राज्य
में पब्लिक पॉलिसी का निर्माण होता है। लेकिन इसे पॉलिसी बनाना नहीं कहते हैं
बल्कि यह पब्लिक फ़ंड का ग़लत तरीक़े से ग़लत दिशा में प्रयोग है, ‘जनता के मत और जनता की शक्ति’ का दुरुपयोग है। देश
के बाहर और देश के भीतर (जैसे केरल) भी इस तरह से पॉलिसी का निर्माण सोच से भी परे
है।
आज
मैं उस भूमिका में आपसे बात करना चाहती हूँ जो वास्तव में मैं हूँ - एक
अंतर्राष्ट्रीय विकास की प्रैक्टिशनर के रूप में। असली विकास सिर्फ़ “साक्ष्य-आधारित
पॉलिसी निर्माण” पर ही आधारित होता है। नीति-निर्माता और
उसको लागू करने वाले लोगों के जीवन में पॉलिसी निर्माण के माध्यम से हस्तक्षेप
करते हैं। ये हस्तक्षेप अवांछित प्रभाव डाल सकते हैं और भले से ज़्यादा बुरा भी कर
सकते हैं। इसलिए लोगों को दिए जाने वाले ‘नुस्ख़े और निषेध’
को बहुत ही मेहनत से शोध किए गए ‘अनुभवजन्य
साक्ष्यों’ पर आधारित होना चाहिए। यह बहुत ही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना
बात होगi कि मनमर्ज़ी से या विश्वसनीय सबूतों के बिना बनाए
गए सिद्धांतों के माध्यम से लोगों के जीवन में हस्तक्षेप किया जाए। ये सबूत गहन
विश्लेषण पर आधारित होते हैं और इसलिए किसी हस्तक्षेप से पड़ने वाले प्रभावों जो
आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या कुछ भी हो सकता है, को समझने के लिए
आवश्यक होते हैं। और इस बात पर कोई समझौता नहीं हो सकता क्योंकि ‘लोग महत्वपूर्ण हैं’ और उनकी मेहनत से अर्जित की गई
टैक्स की रक़म भी।
पुनः
दुनियाँ भर में लागू की जाने वाली पॉलिसी को वर्षों तक अकादमिक शोधार्थियों से
द्वारा अध्ययन किया जाता है ताकि यह समझा जा सके कि वे पॉलिसी कितने फ़ायदेमंद रहे, और इस
ज्ञान का प्रयोग उन सबूतों के साथ मिलाकर किया जाता है जो उस जगह की भौगौलिक,
सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि पर
आधारित होती हैं जहां इसे लागू किया जाना होता है। अगर इस बात का कोई सबूत न हो कि
किसी पॉलिसी ने दुनियाँ भर में कुछ भी भला किया है तो उसे नहीं अपनाया जा सकता।
रोचक बात यह है कि बिहार में वैसी पॉलिसी “राजनीतिक मनमर्ज़ी”
से लागू की जाती हैं जो दुनियाँ भर में असफल हो चुकी हैं। मेरा सवाल
है कि बिहार एक निरंकुश तानाशाही है या एक राजतंत्र?
इस
व्यवहार को रोके जाने की और सवाल खड़े किए जाने की ज़रूरत है। तार्किकता, वैज्ञानिक
सबूत आधारित ज्ञान, या किसी भी प्रकार के ज्ञान का बिहार की
राजनीति में महत्व ख़त्म हो चुका है। लेकिन हमें इसे निश्चित रूप से जीवित रखने की
ज़रूरत है उस समाज का उसी दिन निरादर और तिरस्कार शुरू हो जाता है जिस दिन वो “ज्ञान और बहस” की परम्परा ख़त्म कर दे। लोग अक्षम,
अपर्याप्त व अतार्किक तरीक़े के शासन के कारण रोज़ मरते हैं और
इसलिए हमारे ऐसे नागरिक जो झेल रहे हैं उसे हम नज़रंदाज़ करने का ख़तरा नहीं मोल
ले सकते क्योंकि हम तभी तक सुरक्षित हैं जब तक हमारी बारी नहीं आ जाती।
पुष्पम प्रिया चौधरी |
अध्यक्ष, प्लुरल्स | एम.ए.,
डिवेलप्मेंट स्टडीज़, इन्स्टिटूट ओफ़
डिवेलप्मेंट स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ओफ़ ससेक्स, यूनाइटेड किंग्डम | मास्टर ओफ़ पब्लिक
अड्मिनिस्ट्रेशन,लंडन स्कूल ओफ़ एकनॉमिक्स एंड पोलिटिकल
सायन्स, यूनाइटेड किंग्डम