“अब इस मुद्दे के सामाजिक पहलू को भी देखिए। शिक्षकों का
परिवार भी हमारे समाज का ही हिस्सा है। अब उनके बारे में सभी पूर्वाग्रह को किनारे
करके सोचते हैं। जब सरकार ने जिन भी नियमों के तहत बहाली की होगी और शिक्षकों को
चुना होगा, शिक्षकों की ज़िंदगी बदली होगी, एक परिवार में ख़ुशी आयी होगी। नौकरी मिलने के बाद उन्होंने ख़ुद
अपने परिवार की शुरुआत की होगी, आज उनके पति-पत्नी होंगे, बच्चे होंगे, शायद बूढ़े माँ-बाप भी हों, बेरोज़गार भाई-बहन भी हों, जिन सब की निर्भरता उस शिक्षक पर
होगी जो हर दिन अपनी नौकरी और वेतन को लेकर सशंकित है। इतने लोगों की ज़िंदगी
सरकार का एक तुग़लकी निर्देश-पत्र निर्धारित कर रहा होगा। तो इतनी जिंदगियों की
क्या कोई क़ीमत नहीं होनी चाहिए? और फिर इस हारे मनोबल से क्या कोई
शिक्षक हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाने में सक्षम होंगे?”
अक्सर जब मैं
बिहार के शिक्षकों के अधिकारों के बारे में कुछ भी लिखती हूँ, आप में से कई बहुत नाराज़ होते हुए नज़र आते
हैं। आपसे सोशल मीडिया पर बात करने की यही ख़ूबसूरती है, यहाँ स्टेज पर खड़े होकर एक तरफ़ा भाषण देने के
विपरीत, हमारी बातचीत सम्भव हो पाती है। मैंने अपने
अकादमिक तालीम से ये सीखा है कि समस्या का हल तभी होता है जब हम उसकी जड़ तक पहुँच
पाएँ। उसके बग़ैर ना तो सही मायने में समस्या समझी जा सकती है और न ही समाधान सोचा
जा सकता है। शिक्षा से मेरा बहुत ख़ास लगाव रहा है, सिर्फ़ इस
वजह से नहीं कि मेरी ज़िंदगी में शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण रही है, इस वजह से भी नहीं कि मैं विश्व के जितने भी
बहुत ही विनम्र विद्वानों से मिली हूँ वो सब बहुत शिक्षित हैं, ना कि इस वजह से कि आज जितनी भी नीतियों या
वैज्ञानिक अविष्कारों ने हमारी ज़िंदगी बेहतर बनाई है उन सबका आधार शिक्षा ही थी, बल्कि मूलतः इसलिए क्योंकि शिक्षा लेबर मार्केट
और ह्यूमन कैपिटल के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके बिना आर्थिक और सामाजिक विकास
की कल्पना भी सम्भव नहीं है। शिक्षा हर इंसान की, चाहे उनमें
कितनी भी भिन्नता हो, बुनियादी ज़रूरत है। और मुझे पूरा विश्वास है
कि आप सब मेरी इस बात से तो भली-भाँति सहमत होंगे।
बिहार का
विकास भी तब सम्भव है जब शिक्षा बेहतर हो सके। एजुकेशन के फ़ादर कहे जाने वाले जान
डूयी ने कहा था कि शिक्षा समाज का हिस्सा है और इसलिए वो समाज को प्रतिबिम्बित
करता है, उसका निर्माण करता है। इसका मतलब यह हुआ कि
बिहार की शिक्षा से बिहार का समाज नियंत्रित होगा। निश्चय ही शिक्षा का रिफ़ॉर्म
किसी भी सरकार की नीति का केंद्र होना चाहिए। पर अब सवाल आएगा कि उस रिफ़ॉर्म का
लक्ष्य क्या होना चाहिए? लक्ष्य होगा - बेहतर लर्निंग परिणाम, क्वालिटी, प्रभाव और “स्टैंडर्ड्स”। और तब सकारात्मक बहस का विषय ये होगा कि इसे
हासिल कैसे किया जाए? क्या शिक्षकों के बिना इसे हासिल करना सम्भव है? ज़ाहिर है हम सब इसके जवाब पर भी एकमत होंगे।
नहीं, शिक्षकों के बग़ैर शिक्षा नीति का रिफ़ॉर्म
सम्भव नहीं। तो अब बात बिहार के शिक्षकों की करते हैं। आप में से कई शिक्षकों के
प्रति अपनी रुष्टता प्रकट करते है, कुछ तो उनकी
क़ाबिलियत पर भी प्रश्न उठाते है। जब मैं शिक्षकों से मिली तो वे कई अलग-अलग
बहालियों की चर्चा करते हैं, कुछ बहालियों को सही, कुछ को ग़लत बताते हैं। बिहार में शिक्षकों की
बहाली अलग-अलग समय, अलग-अलग प्रकार से हुई है, पर क्या किसी भी बहाली के टैग के अंतर्गत सभी
शिक्षकों की योग्यता पर फ़ब्ती कसना उचित है? बहाली तो
सरकार ने ही की थी, उसमें शिक्षकों का क्या दोष है? शिक्षक हमारे ही बिहार से आने हैं, उनकी बहाली सरकार की ही ज़िम्मेदारी है, अगर हमें कुछ शिक्षकों की योग्यता से निराशा है
तो ये भी सरकार की ही ज़िम्मेदारी है कि उन्हें हर साल ट्रेनिंग की सुविधा दें। और
उन्हें सम्माजनक ज़िंदगी और वेतन दे जिससे उन्हें और प्रोत्साहन मिले। उन्होंने
ट्रेनिंग की मेहनत से क्या कभी ना कहा है? क्या इसकी
कोई मिसाल है कि सरकार ने उन्हें और प्रशिक्षित करने की नीति बनाई हो और उन्होंने
प्रशिक्षण लेने से मना कर दिया हो? स्कूल
अमानवीय स्थिति में चलते हैं और हमारे शिक्षक उन्हीं स्थिति में पढ़ाते हैं और
हमारे बच्चे बढ़ते हैं। महिला शिक्षकों को छोड़िए पुरुष शिक्षकों तक के लिए टॉयलेट
की व्यवस्था नहीं है। शिक्षक हमारे बच्चों की शिक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें अपमानित करके हम क्या पाएँगे? शिक्षा ऐसा क्षेत्र है जहां सिर्फ़ ‘जॉब’ महत्वपूर्ण नहीं है, यहाँ चरित्र का निर्माण होता है और चरित्र बंने
वालों की इज्जत होनी चाहिए। सबसे शर्मनाक ये है कि सरकार ने शिक्षकों में भी
अलग-अलग विभाजन कर दिया है। भेदभाव ख़त्म करने की जिनकी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, उनके द्वारा ही विभाजन बनाना अशोभनीय है।
अब इस मुद्दे
के सामाजिक पहलू को भी देखिए। शिक्षकों का परिवार भी हमारे समाज का ही हिस्सा है।
अब उनके बारे में सभी पूर्वाग्रह को किनारे करके सोचते हैं। जब सरकार ने जिन भी
नियमों के तहत बहाली की होगी और शिक्षकों को चुना होगा, शिक्षकों की ज़िंदगी बदली होगी, एक परिवार में ख़ुशी आयी होगी। नौकरी मिलने के
बाद उन्होंने ख़ुद अपने परिवार की शुरुआत की होगी, आज उनके
पति-पत्नी होंगे, बच्चे होंगे, शायद बूढ़े
माँ-बाप भी हों, बेरोज़गार भाई-बहन भी हों, जिन सब की निर्भरता उस शिक्षक पर होगी जो हर
दिन अपनी नौकरी और वेतन को लेकर सशंकित है। इतने लोगों की ज़िंदगी सरकार का एक
तुग़लकी निर्देश-पत्र निर्धारित कर रहा होगा। तो इतनी जिंदगियों की क्या कोई क़ीमत
नहीं होनी चाहिए? और फिर इस हारे मनोबल से क्या कोई शिक्षक हमारे
बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाने में सक्षम होंगे? हमें आपत्ति
पॉलिसी बनाने वालों से होनी चाहिए। अच्छा इंफ़्रास्ट्रक्चर, अच्छी ट्रेनिंग, देश के बाक़ी
जगहों से, विदेशों से एक्सचेंज प्रोग्राम, अच्छे उपकरण और बहुत सारा प्रोत्साहन, ये मिलने पर ही हमारे शिक्षक पढ़ाई पर ध्यान
केंद्रित कर पाएँगे और हमारे बच्चों की “लर्निंग
आउटकम” भी बेहतरीन होगी और हमारे बिहार का विकास होगा।
अगर वो अपने सम्मान के लिए ही लड़ते रहे तो कुछ नहीं हो पाएगा। सरकार की नीति
हमेशा हमें ही आपस में लड़ाने की रही है ताकि हम कभी सरकार की विफलता पर
प्रश्न-चिन्ह ना लगाएँ। जब तक हम आपस में एकजुट नहीं होंगे, शिक्षा में सुधार नहीं होगा, बेहतर नीतियाँ नहीं बनाई जाएँगी, और, हम और हमारा
बिहार हारते रहेंगे।
पुष्पम
प्रिया चौधरी | अध्यक्ष, प्लुरल्स | एम.ए., डिवेलप्मेंट
स्टडीज़, इन्स्टिटूट ओफ़ डिवेलप्मेंट स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ओफ़ ससेक्स, यूनाइटेड किंग्डम | मास्टर ओफ़ पब्लिक अड्मिनिस्ट्रेशन,लंडन स्कूल ओफ़ एकनॉमिक्स एंड पोलिटिकल सायन्स, यूनाइटेड
किंग्डम